कबीर साहेब के लिए संतो की वाणिया

जिन संतो ने परमात्मा को देखा, उन्होंने बताया कि कुल का मालिक एक है। संतों ने मालिक से मिलने का केवल एकमात्र विकल्प प्रेम ही बताया हैं, बिना प्रेम के सब कुछ व्यर्थ हैं। निःस्वार्थ प्रेम ही वास्तव में भक्ति हैं। संतों ने बताया है कि मालिक केवल प्रेम भाव से ही मिल सकते हैं। इसके अलावा दुनिया में सब चीजें व्यर्थ ही हैं। संतो ने अपनी वाणियों में बताया हैं कि मालिक कैसा दिखता हैं और कहाँ रहता है?

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इनमें से कुछ संतो के नाम हैं –

  1. आचार्य गरीबदास जी
  2. संत धर्मदास जी
  3. संत रविदास जी
  4. संत नानक जी 
  5. संत पीपा जी
  6. संत दादू जी 
  7. संत मलूकदास जी 
  8. संत घीसादास जी
  9. संत जम्भेश्वर जी
  10. बाबा फ़रीद जी आदि।

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आचार्य गरीबदास जी

आचार्य गरीबदास साहेब जी का आर्विभाव सन् 1717 में हुआ तथा कबीर साहेब जी के दर्शन दस वर्ष की आयु में सन् 1727 में नला नामक खेत में हुए तथा सतलोक वास सन् 1778 में हुआ।

अजब नगर में ले गया, हमकूं सतगुरु आन। झिलके बिम्ब अगाध गति, सूते चादर तान।।
अनन्त कोटि ब्रह्मण्ड का एक रति नहीं भार। सतगुरु पुरुष कबीर हैं कुल के सृजन हार।।
गैबी ख्याल विशाल सतगुरु, अचल दिगम्बर थीर है। भक्ति हेत काया धर आये, अविगत सत् कबीर हैं।।
हरदम खोज हनोज हाजर, त्रिवैणी के तीर हैं। दास गरीब तबीब सतगुरु, बन्दी छोड़ कबीर हैं।।
हम सुल्तानी नानक तारे, दादू कूं उपदेश दिया। जात जुलाहा भेद नहीं पाया, काशी माहे कबीर हुआ।।
सब पदवी के मूल हैं, सकल सिद्धि हैं तीर। दास गरीब सतपुरुष भजो, अविगत कला कबीर।।
जिंदा जोगी जगत् गुरु, मालिक मुरशद पीर। दहूँ दीन झगड़ा मंड्या, पाया नहीं शरीर।।
गरीब जिस कूं कहते कबीर जुलाहा । सब गति पूर्ण अगम अगाहा।।


संत धर्मदास जी

आदरणीय धर्मदास जी ने पवित्र कबीर सागर, कबीर साखी, कबीर बीजक नामक सद्ग्रन्थों की आँखों देखे तथा पूर्ण परमात्मा के पवित्र मुख कमल से निकले अमृत वचन रूपी विवरण से रचना की। अमृत वाणी में प्रमाण:

आज मोहे दर्शन दियो जी कबीर।।टेक।।
सत्यलोक से चल कर आए, काटन जम की जंजीर।।1।।
थारे दर्शन से म्हारे पाप कटत हैं, निर्मल होवै जी शरीर।।2।।
अमृत भोजन म्हारे सतगुरु जीमैं, शब्द दूध की खीर।।3।।
हिन्दू के तुम देव कहाये, मुस्लमान के पीर।।4।।
दोनों दीन का झगड़ा छिड़ गया, टोहे ना पाये शरीर।।5।।
धर्मदास की अर्ज गोसांई, बेड़ा लंघाईयो परले तीर।।6।।

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संत रविदास जी

रविदास जी और कबीर साहेब समकालीन थे। रविदास जी ने कबीर साहेब को अपना गुरु बनाया और मोक्ष प्राप्त किया।

गरीब द्वादश तिलक बनायें कर,नाचौ घर घर जाय।
कनक जनेयू काड़या, सत रविदास चमार।।
रैदास खबास कबीर का, जुगन जुगन सत्संग ।
मीरां का मुजरा हुआ, चढ़त नबेला रंग।।
चमड़े मास और रक्त से, जन का बना आकार।
आंख पसार के देख लो, सारा जगत चमार।।
कबीर हरि सा हीरा छाड़ कै, करै आन की आस।
ते नर दोजख जाएंगे, सत भाखै रविदास


संत नानक जी

नानक जी को मालिक कबीर जी जिन्दा रूप में मिले तथा उनको आदि ज्ञान दिया। कबीर साहेब जी की आदेश से नानक जी ने श्री गुरु ग्रन्थ साहिब जी रचना की और अपनी वाणियो में कबीर साहेब जी को पूर्ण गुरु कहा है।

वाह वाह कबीर गुरु पूरा है।
पूरे गुरु की मैं बलि जावाँ जाका सकल जहूरा है।।
अधर दुलिच परे है गुरुन के शिव ब्रह्मा जह शूरा है।।
श्वेत ध्वजा फहरात गुरुन की बाजत अनहद तूरा है।।
पूर्ण कबीर सकल घट दरशै हरदम हाल हजूरा है।।
नाम कबीर जपै बड़भागी नानक चरण को धूरा है।।

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संत पीपा जी

पीपा जी को मालिक में बहुत विश्वाश था, उन्होंने मालिक को ढूंढ़ने के लिए दरिया में छलांग भी लगा दी थी।
पीपा दरिया मैं कूद गए, जिन्ह कैसी करी डिठाई।
वो नर पाणा जीत गए, जिन्ह सिर धड़ की बाजी लाई॥

वास्तव में, मैं तो हूँ विश्वास में……….

पार किन्हें नहीं पाये संतौं, पार किन्हें नहीं पाये। जुग छतीस रीति नहीं जानी, ब्रह्मा कमल भुलाये।।
च्यारि अण्ड ब्रह्मण्ड रचानैं, कूरंभ धौल धराये। कच्छ मच्छ शेषा नारायण, सहंस मुखी पद गाये ।।
च्यारि बेद अस्तुति करत हैं, ज्ञान अगम गौहराये। अकथ कथा अछर निहअछर, पुस्तक लिख्या न जाये ।।
सुरति निरति सें अगम अगोचर, मन बुद्धि हैरति खाये। ज्ञान ध्यान सें अधक प्रेरा, क्या गाऊं राम राये ।।
नारद मुनी गुनी महमंता, नर सैं नारि बनाये। एक पलक में नारद मुनि, पूत बहतरि जाये ।।
ध्रू प्रहलाद भक्ति के खंभा, द्वादश कोटि चिताये। जिनकी पैज करी प्रवांना, खंभा में प्रगटाये ।।
रावण शिब की भक्ति करी है, दश मस्तक धरि ध्याये।राज पाय करि गये रिसातल, जिनि कैलास हलाये ।।
शिब की भक्ति करी भसमागिर, जिन शिब शंकर ताये। ऐसे मोहन रूप मुरारी, गंड हथ नाच नचाये ।।
बलि कूं जगि असमेद पुराजी, बावन द्वारै आये। तीनि लोक त्रिपैंड़ करी जिनि, ऐसे चरण बढाये ।।
पंच भरतारी की पति राखी, सीता कलंक लगाये। अनन्त चीर चिंत्यामनि कीन्हें, शोभा कही न जाये ।।
कृष्ण चन्द्र गए द्वारिका, कबीर कृष्ण रूप बनाए। दुरजोधन की मेवा त्यागी, साग बिदुर घरि खाये ।।
संख बजा नहीं कृष्ण से वहाँ, सुपच रूप धरि धाए। पाण्डों यज्ञ में कबीर जगत गुरू, तेतीस कोटि हराये ।।
बाज्या संख सुरग में सुनिया, अनहद नाद बजाये। तैमूर लंग की एक रोटी, रुचि रुचि भोग लगाये ।।
सदनां जाति कसाई उधरे, पारासुर ध्यान डिगाये। तपिया का तप दूरि किया है, लोदिया कै गला बंधाये ।।
नरसीला की हूडी झाली, सांवल शाह कहाये। नामदेव की छांनि छिवाइर्, दवे ल फेिर दिखाये ।।
पातिशाह कू परचा लीन्हा, बच्छा गऊ जिवाये। दामं नगीर पीर तम्हु आगै , महला अगनि लगाये ।।
कबीर की गति कोई न जांनै, केशो नाम धराये। नौ लख बोड़ी काशी आई, आप कबीर भर लाए ।।
अतीसार चले साधू के, फिरि सिकलात उठाये। पीपा परचै कबीर साहिब भेटे, चंदोवा दिया बुझाये ।।


संत दादू जी 

आदरणीय दादू जी जब सात वर्ष के बालक थे तब परमात्मा जिंदा महात्मा के रूप में मिले तथा सत्यलोक ले गए। तीन दिन तक दादू जी बेहोश रहे। होश में आने के पश्चात् परमेश्वर की महिमा की आँखों देखी बहुत-सी अमृतवाणी उच्चारण की:

जिन मोकुं निज नाम दिया, सोइ सतगुरु हमार। दादू दूसरा कोई नहीं, कबीर सृजन हार।।
दादू नाम कबीर की, जै कोई लेवे ओट। उनको कबहू लागे नहीं, काल बज्र की चोट।।
दादू नाम कबीर का, सुनकर कांपे काल। नाम भरोसे जो नर चले, होवे न बंका बाल।।
जो जो शरण कबीर के, तरगए अनन्त अपार। दादू गुण कीता कहे, कहत न आवै पार।।
कबीर कर्ता आप है, दूजा नाहिं कोय। दादू पूरन जगत को, भक्ति दृढावत सोय।।
ठेका पूरन होय जब, सब कोई तजै शरीर। दादू काल गँजे नहीं, जपै जो नाम कबीर।।
आदमी की आयु घटै, तब यम घेरे आय। सुमिरन किया कबीर का, दादू लिया बचाय।।
मेटि दिया अपराध सब, आय मिले छनमाँह। दादू संग ले चले, कबीर चरण की छांह।।
सेवक देव निज चरण का, दादू अपना जान। भृंगी सत्य कबीर ने, कीन्हा आप समान।।
दादू अन्तरगत सदा, छिन-छिन सुमिरन ध्यान। वारु नाम कबीर पर, पल-पल मेरा प्रान।।
सुन-2 साखी कबीर की, काल नवावै माथ। धन्य-धन्य हो तिन लोक में, दादू जोड़े हाथ।।
केहरि नाम कबीर का, विषम काल गज राज। दादू भजन प्रतापते, भागे सुनत आवाज।।
पल एक नाम कबीर का, दादू मनचित लाय। हस्ती के अश्वार को, श्वान काल नहीं खाय।।
सुमरत नाम कबीर का, कटे काल की पीर। दादू दिन दिन ऊँचे, परमानन्द सुख सीर।।
दादू नाम कबीर की, जो कोई लेवे ओट। तिनको कबहुं ना लगई, काल बज्र की चोट।।
और संत सब कूप हैं, केते झरिता नीर। दादू अगम अपार है, दरिया सत्य कबीर।।
अबही तेरी सब मिटै, जन्म मरन की पीर। स्वांस उस्वांस सुमिरले, दादू नाम कबीर।।
कोई सर्गुन में रीझ रहा, कोई निर्गुण ठहराय। दादू गति कबीर की, मोते कही न जाय।।
जिन मोकुं निज नाम दिया, सोइ सतगुरु हमार। दादू दूसरा कोई नहीं, कबीर सृजन हार।।


संत मलूकदास जी 

42 वर्ष की आयु में मलूक जी को पूर्ण परमात्मा मिले तथा दो दिन तक मलूक दास जी अचेत रहे। फिर निम्न वाणी उच्चारण की:

जपो रे मन सतगुरु नाम कबीर।।टेक।।
जपो रे मन परमेश्वर नाम कबीर
एक समय गुरु बंसी बजाई कालंद्री के तीर।
सुर-नर मुनि थक गए, रूक गया दरिया नीर।।
काँशी तज गुरु मगहर आये, दोनों दीन के पीर।
कोई गाढ़े कोई अग्नि जरावै, ढूंडा न पाया शरीर।
चार दाग से सतगुरु न्यारा, अजरो अमर शरीर।
दास मलूक सलूक कहत हैं, खोजो खसम कबीर।।


संत घीसादास जी

घीसा जी को कबीर साहेब मिले और मालिक ने उनको यथार्थ ज्ञान दिया। जिसके बाद उन्होंने सतगुरु का महत्त्व अपनी वाणियो में समझाया, जो की इस प्रकार है-

दाता ते, सतगुरू भये,सतगुरू से भये संत।
जुगां जुगी देह धारते, सदा चलाये पंथ।
शबद चलाया आदि का, मेटे सभी विवाद।
जिन्ह यो शबद पिछानिआ, पाये सभी स्वाद।
साहिब सब मैं रम रिहा, सब के कहिये मांहि।
दिष्ट मुष्ट आवे नहीं, कर से गिहा नां जाई ।
अैसा रुप अपार है, सतगुरू दिया लखाई। ।
पूरे सतगुरू भेटिआं, तन मन दीनया दान।
भय मेटिआ, निर्भय किया, जान किया अनजाण।
तेरी नाव पड़ी मझधार मैं, सतगुरू खेवनहार।
माया मोह की धार मैं, बहिआ जाय संसार।
जहां संत तमाशा देखते, हरि जपते बारम बार।
क्या घर ही परदेश है, हर दम सच्ची सार।
जिन खोजियां तिन पाइआं, तेरे दिल विच महिरम यार।
दिल अंदर दीदार है, ता का वार ना पार।
दरिया रुपी आप है, लहर रुपी संसार।
ज्यूं कस्तूरी मृग है, भर्मता फिरे खुआर।
बिन सतगुर नहीं पावसी, चाहे जनम धरो सौ बार।।
घीसा संत तो यूं कहें भाई, हरि जप बारम बार।।



बाबा फ़रीद जी

बाबा फरीद जी बचपन से ही मालिक की तलाश में थे। जब बाबा फरीद बूढ़े हो गए तब वे कुएं में उल्टे लटक गए। वे आखिरी समय तक कौओ से यही कह थे कि तुम मेरा मांस खा लेना पर मेरी आँखे छोड़ देना। मुझे मेरे अल्लाह को देखना है, उनका दीदार करना है। उनका यह प्रयास सार्थक रहा , कबीर साहेब उनसे आकर मिले और उन्हें मालिक का दीदार का हुआ।

फरीदा खाकु न निंदीऐ, खाकू जेडु न कोइ।
जीवदिआ पैरा तलै, मुइआ उपरि होइ।।
कागा सब तन खाइयो, चुन-चुन खाइयो मांस।
दोइ नैना मत खाइयो, पिया मिलन की आस॥
जो तैं मारण मुक्कियाँ, उनां ना मारो घुम्म।
अपनड़े घर जाईए, पैर तिनां दे चुम्म॥


मीरा बाई जी

मीरा बाई जी , रविदास जी और सद्गुरु कबीर साहेब समकालीन थे। मीरा बाई कृष्ण की बहुत बड़ी भक्त थी, तब रविदास जी जो कबीर साहेब से आदि ज्ञान ले चुके थे , वे मीराबाई के गुरु बने और उन्हें सतनाम मन्त्र की दीक्षा दी। बाद में कबीर साहेब उनके पूर्ण गुरु बने और उनको मूल ज्ञान दिया जिससे उनकी मुक्ति हुई। वाणी में कहा भी गया है कि :

मीरा बाई पद मिलि,सतगुरु पीर कबीर
देह छता ल्यौंलीन है,पाया नहीं शरीर ॥